Dr. Sunil Singh
2 min readJun 12, 2020

स्वयं साक्षात्कार



मैं नया इस दुनिया में आया।

हर रोज नए लोग मुझे देखने को आते।

मुझे इस बात पर आश्चर्य होता।

आखिर वे सब मुझे देखने क्यों आते।



एक अजीब सी बात हुई एक दिन,

मेरी आंखों में मुस्कान आई,

और होंठों पर हंसी छा गई,

लोगों को इस पर बड़ी अजीब खुशी हुई।



फिर तो हर कोई मुझे और भी मिलने लगे।

मुझे हंसी-मुस्कान दिखाना एक खेल प्रतीत हुआ।

कब यह नशा बन गया, इसका आभास भी ना हुआ।

बालपन का ये नशा, जीवन जीने का आधार बन गया।



बाहरी दुनिया की खुशी के पीछे ऐसा भागा की,

खुद को जानने की कभी सोच भी ना आई।

लोगों को खुश रखने की इस दौड़ में,

अपने खालीपन‌ के अनुभव से अनजान रह गया।



घटनाओं का कुछ ऐसा निर्माण हुआ,

खुद से मिलने का आयोजन हो गया।

बड़ी ही बेचैनी का अहसास हुआ।

खुद से भाग जाने का ख्याल भी हुआ।

बाहरी खुशी पाने का पुनर्विचार भी हुआ।



इस बार समय की करवट ही कुछ ऐसी थी,

की खुद का खुद से साक्षात्कार हो गया।

सार्थक खुशी का एहसास हो गया,

बालपन की खुशी की निरर्थकता का आभास हो गया।



मैं नशा मुक्त हो कर, जीवन जीने की कला सीख गया।

मुझे मेरे खुश होने का असली मर्म मिल गया।

जीवन जीने का ऐसा आनंद आ गया की,

मेरे खुद का खुद से साक्षात्कार हो गया।

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